त्याग का आनंद अदभुत होता है। . अभावग्रस्त को कुछ देने के बाद आत्मा को संतोष और धर्मलाभ होता है। इसी प्रकार संसार से विदा होते समय यदि मनुष्य स्वेच्छा से संसार को त्याग दे तो उसे कोई कष्ट नहीं होता। स्वेच्छा से न त्यागने वाले रोते -विलखते हैं। पुनरपि संसार से जाना तो पड़ता ही है।
एक यजमान ने विशेष अनुष्ठान में आए दो साधुओं को एक -एक कंबल दे दिया। वे दोनों रात्रि विश्राम के लिए नगर की एक धर्मशाला में ठहर गए। सर्दी की रात थी। रात को सोते समय एक साधु के मन में आया कि कहीं रात को कोई कंबल उठा न ले जाए। उसने लपेटकर उसे अच्छी तरह तह करके सिरहाने में लगाया और सो गया। जब दूसरा साधु सोने लगा ,उसने देखा कि दो बच्चे सर्दी से ठिठुर रहे हैं। उसने वह कंबल उन्हें दे दिया।
रात्रि में धर्मशाला में चोर घुस आए। उस रात्रि धर्मशाला में दो साधु व दो अनाथ बच्चों के अलावा कोई नहीं था। चोरों को चोरी के लिए केवल कंबल ही दिखाई पड़े। दोनों कंबल ले कर भाग गए।
सुबह जब दोनों साधु उठे तो दोनों में से किसी के पास कंबल नहीं थे। एक साधु ने स्वेच्छा से त्याग दिया और दूसरे का सिरहाने के नीचे खिसका लिया। जिसने स्वेच्छा से कंबल का त्याग किया था ,वह आनंद में था और सुबह उठकर अपने मार्ग पर चल दिया। दूसरे ने सिर के नीचे रखा था ,वह अत्यन्त दुखी था। जैसे दुखों का पहाड़ उसपर टूट पड़ा हो लेकिन जो सुख का आनंद पहले साधु ने कंबल त्याग कर लिया ,दूसरे साधु को इसकी अनुभूति तक नहीं थी।
एक यजमान ने विशेष अनुष्ठान में आए दो साधुओं को एक -एक कंबल दे दिया। वे दोनों रात्रि विश्राम के लिए नगर की एक धर्मशाला में ठहर गए। सर्दी की रात थी। रात को सोते समय एक साधु के मन में आया कि कहीं रात को कोई कंबल उठा न ले जाए। उसने लपेटकर उसे अच्छी तरह तह करके सिरहाने में लगाया और सो गया। जब दूसरा साधु सोने लगा ,उसने देखा कि दो बच्चे सर्दी से ठिठुर रहे हैं। उसने वह कंबल उन्हें दे दिया।
रात्रि में धर्मशाला में चोर घुस आए। उस रात्रि धर्मशाला में दो साधु व दो अनाथ बच्चों के अलावा कोई नहीं था। चोरों को चोरी के लिए केवल कंबल ही दिखाई पड़े। दोनों कंबल ले कर भाग गए।
सुबह जब दोनों साधु उठे तो दोनों में से किसी के पास कंबल नहीं थे। एक साधु ने स्वेच्छा से त्याग दिया और दूसरे का सिरहाने के नीचे खिसका लिया। जिसने स्वेच्छा से कंबल का त्याग किया था ,वह आनंद में था और सुबह उठकर अपने मार्ग पर चल दिया। दूसरे ने सिर के नीचे रखा था ,वह अत्यन्त दुखी था। जैसे दुखों का पहाड़ उसपर टूट पड़ा हो लेकिन जो सुख का आनंद पहले साधु ने कंबल त्याग कर लिया ,दूसरे साधु को इसकी अनुभूति तक नहीं थी।
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