इंसान भी बड़ा ही अजीब किस्म का व्यापारी है। जब चीज हाथ से निकल जाती है तब वह उसकी कीमत पहचानता है। जब सुकरात की मृत्यु हुई तब उस मृत्यु का कारण बनने वाले एक दुष्ट व्यक्ति को बड़ा पछतावा हुआ। वह सुकरात के एक शिष्य से जाकर बोला -मुझे सुकरात से मिलना है। इसपर शिष्य ने कहा -क्या अब भी तुम्हें उनका पीछा नहीं छोड़ना है ? 'नहीं भाई ,ऐसा नहीं है। मुझे बहुत पछतावा हो रहा है। मुझे ऐसा लग रहा है कि मैंने उस महापुरुष के प्रति भयंकर अन्याय किया है। मुझे उनसे क्षमा मांगनी है। '
अरे मूर्ख व्यक्ति ! यह तो अब असंभव है। पुल के नीचे बहुत पानी बह गया है। स्वयं सुकरात ने एक स्थान पर कहा है --'अंतिम समय में मृत्युवेला में मनुष्य सत्य को पहचान ले यह सम्भव है ,किन्तु उस समय बहुत विलम्ब हो चुका होता है। '
सत्यानाश कर डालने के बाद पश्चाताप करने का कोई अर्थ ही नहीं। जब महापुरुष शरीर छोड़कर चले जाते हैं ,तब उनकी महानता का पता लगने पर इंसान पछताते हुए रोते रह जाता है और उनके चित्रों को दीवार पर सजाता है लेकिन उनके जीवित सानिंध्य में कभी अपना दिल दिया होता तो बात ही कुछ और होती। अब पछताये होत क्या ---जब संत गये निजधाम।
अरे मूर्ख व्यक्ति ! यह तो अब असंभव है। पुल के नीचे बहुत पानी बह गया है। स्वयं सुकरात ने एक स्थान पर कहा है --'अंतिम समय में मृत्युवेला में मनुष्य सत्य को पहचान ले यह सम्भव है ,किन्तु उस समय बहुत विलम्ब हो चुका होता है। '
सत्यानाश कर डालने के बाद पश्चाताप करने का कोई अर्थ ही नहीं। जब महापुरुष शरीर छोड़कर चले जाते हैं ,तब उनकी महानता का पता लगने पर इंसान पछताते हुए रोते रह जाता है और उनके चित्रों को दीवार पर सजाता है लेकिन उनके जीवित सानिंध्य में कभी अपना दिल दिया होता तो बात ही कुछ और होती। अब पछताये होत क्या ---जब संत गये निजधाम।
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