न्यायदर्शन का मत है कि संसार में मनुष्य के जन्म का मुख्य कारण है -उसके पूर्व संस्कार और शेष संचित कर्म। अज्ञानता के कारण दोष उत्पन्न होते हैं और दोष के कारण प्रवृति बन जाती है। यह प्रवृति है जिसके कारण जन्म होता है और सब दुखों का कारण जन्म ही है। जब तक अज्ञानता दूर नहीं होगी यह जन्म -मरण का अनादि चक्र चलता ही रहेगा। अज्ञानता ,अविद्या ,अंधकार के हटने पर ही मुक्ति मिलती है और परान्तकाल तक जीवात्मा आनंद का भोग करता है।
मनुष्य स्वयं जन्म नहीं लेता। ये उसके कर्म ही हैं जो उसे जन्म होने पर विवश करते हैं। जन्म कब -कहां -कैसे होना है यह मनुष्य के वश में नहीं है। ईश्वर ही सर्वज्ञ है ,न्यायकारी है। मनुष्य के वर्तमान जीवन में किये कर्मों के आधार पर तथा पूर्व -जन्मों के संचित कर्मानुसार ईश्वर -व्यवस्था में मनुष्य को जन्म मिलता है। मनुष्य अगर वर्तमान जीवन से अपने कर्मों पर ध्यान दे तो वह अपने कर्मों में सुधार लाकर जीवन सफल कर सकता है और ईश्वर की उपासना से सद्ज्ञान की प्राप्ति करके मोक्ष का भागी बन सकता है और जन्म -मरण के बंधनों से मुक्त हो सकता है।
मनुष्य स्वयं जन्म नहीं लेता। ये उसके कर्म ही हैं जो उसे जन्म होने पर विवश करते हैं। जन्म कब -कहां -कैसे होना है यह मनुष्य के वश में नहीं है। ईश्वर ही सर्वज्ञ है ,न्यायकारी है। मनुष्य के वर्तमान जीवन में किये कर्मों के आधार पर तथा पूर्व -जन्मों के संचित कर्मानुसार ईश्वर -व्यवस्था में मनुष्य को जन्म मिलता है। मनुष्य अगर वर्तमान जीवन से अपने कर्मों पर ध्यान दे तो वह अपने कर्मों में सुधार लाकर जीवन सफल कर सकता है और ईश्वर की उपासना से सद्ज्ञान की प्राप्ति करके मोक्ष का भागी बन सकता है और जन्म -मरण के बंधनों से मुक्त हो सकता है।
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