श्रद्धा से जो काम किया जाए उसे श्राद्ध कहते हैं। तृप्ति करने का नाम तर्पण है। पितरों का श्राद्ध और तर्पण करना चाहिए ,वर्ष में एक दो बार ही नहीं अपितु प्रतिदिन करना चाहिए। इस संबंध में मुख्य प्रश्न यह है कि पितर कौन है ?शास्त्रों के अनुसार जीवित वृद्ध माता -पिता ,दादा -दादी ,नाना -नानी आदि तथा कोई भी विद्वान् परोपकारी मनुष्य पितर कहलाते हैं। इन सब को भोजन, वस्त्र आदि सेसंतुष्ट रखना प्रत्येक गृहस्थ का कर्तव्य है ,यही इनका श्राद्ध और तर्पण है।
जो मनुष्य मर चुके हैं उनपर ये बातें लागू नहीं होती। इसलिए मरे हुओं को पितर कहना गलत है। वैसे भी जो मर चुके हैं वे अपने -अपने कर्मो अनुसार ईश्वर की व्यवस्था से दूसरे शरीरों में चले गए हैं। वे अब कहां किस मनुष्य या पशु पक्षी आदि के शरीर में हैं यह भी ईश्वर के सिवाय और कोई नहीं जानता। इसलिए उनका श्राद्ध और तर्पण बिलकुल असगंत -सी बात है।
मनुष्य का अन्य मनुष्यों से संबंध केवल तब तक है जब तक वह जीवित है। मरने के पश्चात उसका उनसे कोई भी नाता नहीं रहता। मरने के पश्चात उसके निमित किये हुए दान पुण्य आदि का फल भी उस मरने वाले को नहीं मिलता। किसी भी शुभ अशुभ कर्म का फल उसके कर्ता को ही मिला करता है ,अन्य को नहीं।
बड़ा भाई ,पिता और विद्या देने वाला ,धर्म के मार्ग पर चलने वाला -ये सब पितर जानने चाहिए।
जो मनुष्य मर चुके हैं उनपर ये बातें लागू नहीं होती। इसलिए मरे हुओं को पितर कहना गलत है। वैसे भी जो मर चुके हैं वे अपने -अपने कर्मो अनुसार ईश्वर की व्यवस्था से दूसरे शरीरों में चले गए हैं। वे अब कहां किस मनुष्य या पशु पक्षी आदि के शरीर में हैं यह भी ईश्वर के सिवाय और कोई नहीं जानता। इसलिए उनका श्राद्ध और तर्पण बिलकुल असगंत -सी बात है।
मनुष्य का अन्य मनुष्यों से संबंध केवल तब तक है जब तक वह जीवित है। मरने के पश्चात उसका उनसे कोई भी नाता नहीं रहता। मरने के पश्चात उसके निमित किये हुए दान पुण्य आदि का फल भी उस मरने वाले को नहीं मिलता। किसी भी शुभ अशुभ कर्म का फल उसके कर्ता को ही मिला करता है ,अन्य को नहीं।
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